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Thursday 10 November 2016

शिव महिमा स्त्रोत्र हिंदी में ,Shiv mahima hindi ,

हे हर !!! आप प्राणी मात्र के कष्टों को हराने वाले हैं। मैं इस स्तोत्र द्वारा आपकी वंदना कर रहा हूं ,
जो कदाचित आपके वंदना के योग्य न भी हो पर हे महादेव स्वयं ब्रह्मा और अन्य देवगण भी आपके चरित्र की   पूर्ण गुणगान करने में सक्षम नहीं हैं। जिस प्रकार एक पक्षी अपनी क्षमता के अनुसार ही आसमान में उड़ान भर सकता है उसी प्रकार मैं भी अपनी यथाशक्ति आपकी आराधना करता हूं। 
  
हे शिव !!! आपकी व्याख्या न तो मन, ना ही वचन द्वारा ही संभव है। आपके सन्दर्भ में वेद भी अचंभित हैं तथा नेति नेति का प्रयोग करते हैं अर्थात यह भी नहीं और वो भी नहीं...  आपका संपूर्ण गुणगान भला कौन कर सकता है? यह जानते हुए भी कि आप आदि व अंत रहित हैं परमात्मा का गुणगान कठिन है मैं आपकी वंदना करता हूं।  

हे वेद और भाषा के सृजक जब स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं तो फिर मेरा कहना ही क्या? हे त्रिपुरारी, अपनी सीमित क्षमता का    बोध होते हुए भी मैं इस विश्वास से इस स्तोत्र की रचना कर रहा हूं 
कि इससे मेरी वाणी शुद्ध होगी तथा मेरी बुद्धि का विकास होगा।  
हे देव, आप ही इस संसार के सृजक, पालनकर्ता एवं विलयकर्ता हैं। तीनों वेद आपकी ही संहिता गाते हैं, तीनों गुण (सतो-रजो-तमो) आपसे ही प्रकाशित हैं। आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है। इसके बाद भी कुछ मूढ़  प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके बारे भ्रम फैलाने का प्रयास करते हैं जो की सर्वथा अनुचित है।   

हे महादेव !!! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं ही भ्रमित हैं इस प्रकार से तर्क-वितर्क द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिश करते हैं। वह कहते हैं कि अगर कोई परम पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं? वह कैसा  दिखता है? उसके क्या साधन हैं? वह इस सृष्टि को किस प्रकार धारण करता है? ये प्रश्न वास्तव में भ्रामक मात्र हैं। वेद ने भी स्पष्ट किया है कि तर्क द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता। 
  

हे परमपिता !!! इस सृष्टि में सात लोक हैं (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, सत्यलोक,महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक)। इनका सृजन भला सृजक (आपके) के बिना कैसे संभव हो सका  ? यह किस प्रकार से और किस साधन से निर्मित हुए? तात्पर्य यह है कि आप पर किसी प्रकार का संशय नहीं किया जा सकता।   
वि‍विध प्राणी सत्य तक पहुंचने के लिए विभिन्न वेद पद्धतियों का अनुसरण करते हैं। पर जिस प्रकार सभी नदी अंतत: सागर में समाहित हो जाती है ठीक उसी प्रकार हर मार्ग आप तक ही पहुंचता है  
हे शिव !!! आपके भृकुटी के इशारे मात्र से सभी देवगण ऐश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं। पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ बैल (नंदी), कपाल, बाघम्बर, त्रिशुल, कपाल एवं नाग्माला एवं भस्म मात्र है। अगर कोई संशय करें कि आप देवों के असीम ऐश्वर्य के स्त्रोत हैं तो आप स्वयं उन ऐश्वर्यों का भोग क्यों नहीं करते तो इस प्रश्न का उत्तर सहज ही है आप इच्छा रहित हैं तथा स्वयं में ही स्थितप्रज्ञ रहते हैं।   
हे त्रिपुरहंता !!! इस संसार के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई इसे नित्य जानता है तो कोई इसे अनित्य समझता है।  अन्य इसे नित्यानित्य बताते हैं। इन विभिन्न मतों के कारण मेरी बुद्धि भ्रमित होती है पर मेरी भक्ति आप में और दृढ़ होती जा रही है। 
  एक समय आपके पूर्ण स्वरूप का भेद जानने हेतु ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमश:प्रत्येक दिशा में गए। पर उनके सारे प्रयास विफल हुए। जब उन्होंने भक्ति मार्ग अपनाया तभी आपको जान पाए। क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो हो सकती है ?  
हे त्रिपुरान्तक !!! दशानन रावण किस प्रकार विश्व को शत्रु विहीन कर सका? उसके महाबाहू हर पल युद्ध के लिए व्यग्र रहे। हे प्रभु!  रावण ने भक्तिवश अपने ही शीश को काट-काट कर आपके चरण कमलों में अर्पित कर दिया, यह उसी भक्ति का प्रभाव था।  
हे शिव !!! एक समय उसी रावण ने मद् में चूर आपके कैलाश को उठाने की धृष्टता करने की भूल की। हे महादेव आपने अपने सहज पांव के अंगूठे मात्र से उसे दबा दिया।  फिर क्या था रावण कष्ट में रूदन करा उठा। वेदना ने पटल लोक में भी उसका पीछा नहीं छोड़ा। अंततः आपकी शरणागति के बाद ही वह मुक्त हो सका।   
हे शम्भो !!! आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक ऐश्वर्यशाली बन सका तथा तीनों लोकों पर राज्य किया।  हे ईश्वर, आपकी भक्ति से क्या कुछ संभव नहीं है?   
देवताओं एव असुरों ने अमृत प्राप्ति हेतु समुन्द्र मंथन किया। समुद्र से मूल्यवान वस्तुएं प्रकट हुईं जो देव तथा दानवों ने आपस में बांट ली। पर जब समुद्र से अत्यधिक भयावह कालकूट विष प्रकट हुआ तो असमय ही  सृष्टि समाप्त होने का भय उत्पन्न हो गया और सभी भयभीत हो गए। हे हर, तब आपने संसार रक्षार्थ विषपान कर लिया। वह विष आपके कंठ में निष्क्रिय हो कर पड़ा है।  विष के प्रभाव से आपका कंठ नीला पड़ गया। हे नीलकंठ, आश्चर्य है की यह स्थिति भी आपकी शोभा ही बढ़ाती है। कल्याण कार्य सुन्दर ही होता है।   
हे प्रभु !!! कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव या दानव ही पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे  बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तत्क्षण ही भस्म कर दिया। श्रेष्ठ जनों के अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता।   

हे नटराज !!! जब संसार कल्याण के हेतु आप तांडव करने लगते हैं तो आपके पांव के नीचे धरा कांप उठती है, आपके हाथों की परिधि से टकरा कर ग्रह-नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं।   विष्णु लोक भी हिल जाता है। आपकी जटा के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोग व्याकुल हो उठता है। आश्चर्य ही है हे महादेव कि अनेक बार कल्याणकारी कार्य भी भय उत्पन्न करते हैं।   
आकाश गंगा से निकलती तारागणों के बीच से गुजरती गंगा जल अपनी धारा से धरती पर टापू तथा अपने वेग से चक्रवात उत्पन्न करती हैं।   पर य उफान से परिपूर्ण गंगा आपके मस्तक पर एक बूंद के सामन ही दृष्टिगोचर होती है। यह आपके दिव्य स्वरूप का ही परिचायक है।   
हे शिव !!! आपने त्रिपुरासुर का वध करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य-चन्द्र को पहिया एवं स्वयं इन्द्र को बाण बनाया। हे शम्भु, इस वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी?   आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता?  

जब भगवान विष्णु ने आपकी सहस्र कमलों एवं सहस्र नामों द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमल कम पाया। तब भक्ति भाव से हरी ने अपनी एक आंख को  कमल के स्थान पर अर्पित कर दिया। उनकी यही अदम्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लिया जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं। 
  
हे देवाधिदेव !!! आपने ही कर्म-फल का विधान बनाया। आपके ही विधान से अच्छे कर्मो तथा यज्ञ कर्म का फल प्राप्त होता है।   । आपके वचनों में श्रद्धा रख कर सभी वेद कर्मो में आस्था बनाए रखते हैं तथा यज्ञ कर्म में संलग्न रहते हैं।   

हे प्रभु !!! यद्यपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तदपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेरित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसका परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है।  दक्षप्रजापति के महायज्ञ से उपयुक्त उदाहरण भला और क्या हो सकता है? दक्षप्रजापति के यज्ञ में स्वयं ब्रह्मा पुरोहित तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि सम्मिलित हुए। फिर भी शिव की अवहेलना के कारण यज्ञ का नाश हुआ। आप अनीति को सहन नहीं करते भले ही शुभकर्म के संदर्भ में क्यों न हो। 
  

एक समय में ब्रह्मा अपनी पुत्री पर ही मोहित हो गए जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरूप धारण कर भागने की कोशिश की तो कामातुर ब्रह्मा भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे  । हे शंकर तब आपने व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण लेकर ब्रह्मा की और कूच किया। आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा की ओर भाग निकले तथा आजे भी आपसे भयभीत हैं।
  
हे योगेश्वर! जब आपने माता पार्वती को अपनी सहधर्मिणी बनाया तो उन्हें आपके योगी होने पर शंका उत्पन्न हुई। यह शंका निर्मूल ही थी क्योंकि जब स्वयं कामदेव   ने आप पर अपना प्रभाव दिखलाने की कोशिश की तो आपने काम को जला करा नष्ट कर दिया।  

हे भोलेनाथ!!! आप श्मशान में रमण करते हैं, भुत-प्रेत आपके संगी होते हैं, आप चिता भस्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं। यह सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं   तब भी हे श्मशान निवासी आपके भक्तो को आप इस स्वरूप में भी शुभकारी एव आनंददायी ही प्रतीत होते हैं क्योंकि हे शंकर आप मनोवांछित फल प्रदान करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते।   
हे योगिराज!!! मनुष्य नाना प्रकार के योग्य पद्धति को अपनाते हैं जैसे की सांस पर नियंत्रण, उपवास, ध्यान इत्यादि।  इन योग क्रियाओं द्वारा वो जिस आनंद, जिस सुख को प्राप्त करते हैं वह वास्तव में आप ही हैं। 
हे शिव !!! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नि, जल एवं वायु हैं। आप ही आत्मा भी हैं। हे देव मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों।   
हे सर्वेश्वर!!! ॐ तीन तत्वों से बना है अ, ऊ, मं जो तीन वेदों (ऋग, साम, यजु), तीन अवस्था (जाग्रत, स्वप्न, सुशुप्त), तीन लोकों, तीन कालों, तीन गुणों तथा त्रिदेवों   को इंगित करता है। हे ॐकार आपही इस त्रिगुण, त्रिकाल, त्रिदेव, त्रिअवस्था, और त्रिवेद के समागम हैं।   
हे शिव, वेद एवं देवगन आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं - भव, सर्व, रूद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम  , एवं इशान। हे शम्भू मैं भी आपकी इन नामों से स्तुति करता हूं। 
  
हे त्रिलोचन, आप अत्यधिक दूर हैं और अत्यंत पास भी, आप महाविशाल भी हैं तथा परमसूक्ष्म भी,   आप श्रेठ भी हैं तथा कनिष्ठ भी। आप ही सभी कुछ हैं साथ ही आप सभी कुछ से परे भी हैं। 
  
हे भव, मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपका नमन करता हूं। हे हर, मैं आपको तामस गुण से युक्त, विलयकर्ता मान आपका नमन करता हूं।   हे मृड, आप सतोगुण से व्याप्त सभी का पालन करने वाले हैं। आपको नमस्कार है। आप ही ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश हैं। हे परमात्मा, मैं आपको इन तीन गुणों से परे जान कर शिव रूप में नमस्कार करता हूं।   
हे शिव आप गुणातीत हैं और आपका विस्तार नित बढ़ता ही जाता है। अपनी सीमित क्षमता से मैं कैसे आपकी वंदना कर सकता हूं?   पर भक्ति से ये दूरी मिट जाती है तथा मैं आपने कर कमलों में अपनी स्तुति प्रस्तुत करता हूं।   
यदि कोई गिरी (पर्वत) को दवात, सिंधु को स्याही, देव उद्यान के किसी विशाल वृक्ष को लेखनी एवं उसे छाल को पत्र की तरह उपयोग   में लाए तथा स्वयं ज्ञान स्वरूपा मां सरस्वती अनंतकाल आपके गुणों की व्याख्या में संलग्न रहें तो भी आप के गुणों की व्याख्या संभव नहीं है।   
इस स्तोत्र की रचना पुष्पदंत गंधर्व ने चन्द्रमौलेश्वर शिव जी के गुणगान के लिए की है जो गुणातीत हैं। 
  
जो भी इस स्तोत्र का शुद्ध मन से नित्य पाठ करता है वह जीवन काल में विभिन्न ऐश्वर्यों का भोग करता है   तथा अंततः शिवधाम को प्राप्त करता है तथा शिवतुल्य हो जाता है।  
महेश से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, महिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं, ॐ से बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरु से उपर कोई सत्य नहीं।  
दान, यज्ञ, ज्ञान एवं त्याग इत्यादि सत्कर्म इस स्तोत्र के पाठ के सोलहवें अंश के बराबर भी फल नहीं प्रदान कर सकते।   
कुसुमदंत नामक गंधर्वों का राजा चंद्रमौलेश्वर शिव जी का परम भक्त था। अपने अपराध (पुष्प की चोरी) के कारण वह अपने दिव्य स्वरूप से वंचित हो गया  तब उसने इस स्तोत्र की रचना कर शिव को प्रसन्न किया तथा अपने दिव्य स्वरूप को पुनः प्राप्त किया।   जो इस स्तोत्र का पठन करता है वो शिवलोक पाता है तथा ऋषि-मुनियों द्वारा भी पूजित हो जाता है।   पुष्पदंत रचित ये स्तोत्र दोषरहित है तथा इसका नित्य पाठ करने से परम सुख की प्राप्ति होती है।  ये स्तोत्र शंकर भगवान को समर्पित है। प्रभु महादेव हमसे प्रसन्न हों।   
हे शिव !!! मैं आपके वास्तविक स्वरुप को नहीं जानता। हे शिव आपके उस वास्तविक स्वरूप जिसे मैं नहीं जान सकता उसको नमस्कार है।  
जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वो पाप मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है।   
पुष्पदंत द्वारा रचित ये स्तोत्र शिव जी अत्यंत ही प्रिय है। इसका पाठ करने वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है।  
इतने के बाद पुष्प दन्त द्वारा बनाया गया भगवान शंकर की महिमा का बखान करने वाला स्त्रोत्र पूर्ण होता है |  

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