Tuesday 31 January 2017

माता सरस्वती की कथा , मंत्र, वसंत पंचमी पर्व


माता सरस्वती 



माता सरस्वती 

कथा प्रसंग 1:

माँ सरस्वती के एक मुख, चार हाथ हैं। सरस्वती का जन्म ब्रह्मा के मुँह से हुआ था। मुस्कान से उल्लास, दो हाथों में वीणा-भाव संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है। पुस्तक से ज्ञान और माला से ईशनिष्ठा-सात्त्विकता का बोध होता है। वाहन मयूर-सौन्दर्य एवं मधुर स्वर का प्रतीक है। इनका वाहन हंस माना जाता है और इनके हाथों में वीणा, वेद और माला होती है। भारत में कोई भी शैक्षणिक कार्य के पहले इनकी पूजा की जाती हैं। ये ब्रह्मा की स्त्री हैं।सरस्वती माँ के अन्य नामों में शारदा, शतरूपा, वीणावादिनी, वीणापाणि, वाग्देवी, वागेश्वरी,वाणी, भारतीशुक्लवर्ण, श्वेत वस्त्रधारिणी, वीणावादनतत्परा तथा श्वेतपद्मासना आदि कई नामों से जाना जाता है।

कथा प्रसंग 2:

विद्या की यह देवी बेहद खूबसूरत और आकर्षक थीं कि स्वयं ब्रह्मा भी सरस्वती के आकर्षण से खुद को बचाकर नहीं रख पाए और उन्हें अपनी अर्धांगिनी बनाने पर विचार करने लगे | सरस्वती ने अपने पिता की इस मनोभावना को भांपकर उनसे बचने के लिए चारो दिशाओं में छिपने का प्रयत्न किया लेकिन उनका हर प्रयत्न बेकार साबित हुआ। इसलिए विवश होकर उन्हें अपने पिता के साथ विवाह करना पड़ा।ब्रह्मा और सरस्वती करीब 100 वर्षों तक एक जंगल में पति-पत्नी की तरह रहे। इन दोनों का एक पुत्र भी हुआ जिसका नाम रखा गया था स्वयंभु मनु।

कथा प्रसंग 3:

मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा अपनी ही बनाई हुई रचना, सरवस्ती के प्रति आकर्षित होने लगे और लगातार उन पर अपनी दृष्टि डाले रखते थे। ब्रह्मा की दृष्टि से बचने के लिए सरस्वती चारो दिशाओं में छिपती रहीं लेकिन वह उनसे नहीं बच पाईं। इसलिय सरस्वती आकाश में जाकर छिप गईं लेकिन अपने पांचवें सिर से ब्रह्मा ने उन्हें आकाश में भी खोज निकाला और उनसे सृष्टि की रचना में सहयोग करने का निवेदन किया।सरस्वती से विवाह करने के पश्चात सर्वप्रथम मनु का जन्म हुआ। ब्रह्मा और सरस्वती की यह संतान मनु को पृथ्वी पर जन्म लेने वाला पहला मानव कहा जाता है।

कथा प्रसंग 4:

लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा नारायण के निकट निवास करती थीं। एक बार गंगा ने नारायण के प्रति अनेक कटाक्ष किये। नारायण तो बाहर चले गये किन्तु इससे सरस्वती रुष्ट हो गयी। सरस्वती को लगता था कि नारायण गंगा और लक्ष्मी से अधिक प्रेम करते हैं। लक्ष्मी ने दोनों का बीच-बचाव करने का प्रयत्न किया। सरस्वती ने लक्ष्मी को निर्विकार जड़वत् मौन देखा तो जड़ वृक्ष अथवा सरिता होने का शाप दिया। सरस्वती को गंगा की निर्लज्जता तथा लक्ष्मी के मौन रहने पर क्रोध था। उसने गंगा को पापी जगत का पाप समेटने वाली नदी बनने का शाप दिया। गंगा ने भी सरस्वती को मृत्युलोक में नदी बनकर जनसमुदाय का पाप प्राक्षालन करने का शाप दिया। तभी नारायण भी वापस आ पहुँचे। उन्होंने सरस्वती का आर्लिगन कर उसे शांत किया तथा कहा—“एक पुरुष अनेक नारियों के साथ निर्वाह नहीं कर सकता। परस्पर शाप के कारण तीनों को अंश रूप में वृक्ष अथवा सरिता बनकर मृत्युलोक में प्रकट होना पड़ेगा। लक्ष्मी! तुम एक अंश से पृथ्वी पर धर्म-ध्वज राजा के घर अयोनिसंभवा कन्या का रूप धारण करोगी, भाग्य-दोष से तुम्हें वृक्षत्व की प्राप्ति होगी। मेरे अंश से जन्मे असुरेंद्र शंखचूड़ से तुम्हारा पाणिग्रहण होगा। भारत में तुम ‘तुलसी’ नामक पौधे तथा पदमावती नामक नदी के रूप में अवतरित होगी। किन्तु पुन: यहाँ आकर मेरी ही पत्नी रहोगी। गंगा, तुम सरस्वती के शाप से भारतवासियों का पाप नाश करने वाली नदी का रूप धारण करके अंश रूप से अवतरित होगी। तुम्हारे अवतरण के मूल में भागीरथ की तपस्या होगी, अत: तुम भागीरथी कहलाओगी। मेरे अंश से उत्पन्न राजा शांतनु तुम्हारे पति होंगे। अब तुम पूर्ण रूप से शिव के समीप जाओ। तुम उन्हीं की पत्नी होगी। सरस्वती, तुम भी पापनाशिनी सरिता के रूप में पृथ्वी पर अवतरित होगी। तुम्हारा पूर्ण रूप ब्रह्मा की पत्नी के रूप में रहेगा। तुम उन्हीं के पास जाओ।’’ उन तीनों ने अपने कृत्य पर क्षोभ प्रकट करते हुए शाप की अवधि जाननी चाही। कृष्ण ने कहा—“कलि के दस हज़ार वर्ष बीतने के उपरान्त ही तुम सब शाप-मुक्त हो सकोगी।’’ सरस्वती ब्रह्मा की प्रिया होने के कारण ब्राह्मी नाम से विख्यात हुई।

कथा प्रसंग 5:

सृष्टि निर्माण का काम पूरा होने के बाद एक दिन पवित्र उद्देश्य को पूरा करने के लिए ब्रह्मा जी ब्रह्मलोक से निलकर पृथ्वी पर पधारे। पृथ्वी पर आकर इन्होंने सबसे उत्तम मुहूर्त में यज्ञ का आयोजन किया। लेकिन एक समस्या यह थी कि बिना पत्नी के यज्ञ पूरा नही हो सकता था। ब्रह्मा जी शुभ मुहूर्त को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहते थे। इसलिए संसार के कल्याण हेतु एक ऐसी कन्या से विवाह कर लिया जो बुद्धिमान होने के साथ ही शास्त्रों का भी ज्ञान रखती थीं। इस कन्या का नाम शास्त्रों और पुराणों में गायत्री बताया गया। गायत्री से विवाह करने के बाद ब्रह्मा जी ने यज्ञ करना शुरु कर दिया। देवी सरस्वती ब्रह्मा जी को तलाश करते हुए तीर्थ नगरी पुष्कर में पहुंची जहां ब्रह्मा जी गायत्री के साथ यज्ञ कर रहे थे। ब्रह्मा जी के साथ दूसरी स्त्री को देखकर देवी सरस्वती क्रोधित हो उठी और ब्रह्मा जी को शाप दे दिया कि कि पृथ्वी के लोग ब्रह्मा को भुला देंगे और कभी इनकी पूजा नहीं होगी। किन्तु अन्य देवताओं की प्रार्थना पर सरस्वती का क्रोध कम हुआ और उन्होने कहा कि ब्रह्मा जी केवल पुष्कर में पूजे जाएंगे।

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शिक्षा व् अध्ययन के क्षेत्र काम कर रहे लोगो, विद्यार्थियों को माता सरस्वती की आराधना करनी चाहिए |
वे लोग जो मंदबुद्धि है ,जिन्हें भूलने की बीमारी है ,उन्हें भी माता सरस्वती की पूजा करनी चाहिए |


माता सरस्वती 

मां सरस्वती का श्र्लोक :-


पहले ॐ गं गणपतये नम: मन्त्र का जाप करें। 

ॐ श्री सरस्वती शुक्लवर्णां सस्मितां सुमनोहराम्।। कोटिचंद्रप्रभामुष्टपुष्टश्रीयुक्तविग्रहाम्।
वह्निशुद्धां शुकाधानां वीणापुस्तकमधारिणीम्।।  रत्नसारेन्द्रनिर्माणनवभूषणभूषिताम्।
सुपूजितां सुरगणैब्रह्मविष्णुशिवादिभि:।।

 वन्दे भक्तया वन्दिता च मुनीन्द्रमनुमानवै:।

देवी सरस्वती का मूल मंत्र है : -

'शारदा शारदाभौम्वदना। वदनाम्बुजे।सर्वदा सर्वदास्माकमं सन्निधिमं सन्निधिमं क्रिया तू।'

अन्य सरस्वती देवी के मंत्र 

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं महासरस्वती देव्यै नम:|
ॐ श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा।
ॐ ह्रीं ऐं ह्रीं सरस्वत्यै नमः।
ॐ महाविद्यायै नम: |
ॐ वाग्देव्यै नम: |
ॐ ज्ञानमुद्रायै नम: |

 सरस्वती देवी की स्तुति 

या कुंदेंदुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमंडितकरा या श्वेतपद्मासना !
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभ्रृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा ! 

अर्थ :-

जो चन्द्रमा समान मुखमंडल लिए, हिम जैसे श्वेत कुंद फूलों के हार और शुभ्र वस्त्रों से अलंकृत हैं ,जो हाथों में श्रेष्ठ वीणा लिए श्वेत कमल पर विराजमान हैं,ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि देवगण भी जिनकी सदैव स्तुति करते हैं ,हे मां भगवती सरस्वती, आप मेरी सारी मानसिक जड़ता को दूर करो,हे सर्वत्र-विद्यमान विद्या देवी, आपको मेरा बार-बार नमस्कार |


सरस्वती माता का रक्षा मंत्र तथा स्तुति 

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌।
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्‌
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥

अर्थ :-

जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें॥
शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत्‌ में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान्‌ बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ॥



माता सरस्वती 

सरस्वती मंत्र


सरस्वती मंत्र  बीज मंत्र " ऐं " है।

 द्वयक्षर सरस्वती मंत्र -  

1. आं लृं  2. ऐं लृं

 त्र्यक्षर सरस्वती मंत्र -     

ऐं रुं स्वों।

चतुर्क्षर सरस्वती मंत्र 

ॐ ऐं नमः।

नवाक्षर सरस्वती मंत्र -

ॐ ऐं ह्रीं सरस्वत्यै नमः

 दशाक्षर सरस्वती मंत्र -

1. - वद वद वाग्वादिन्यै स्वाहा
2.- ह्रीं ॐ ह्रसौं ॐ सरस्वत्यै नमः।

एकादशाक्षर सरस्वती मंत्र -

ॐ ह्रीं ऐं ह्रीं ॐ सरस्वत्यै नमः।


एकादशाक्षर-चिन्तामणि-सरस्वती मंत्र -

ॐ ह्रीं ह्स्त्रैं ह्रीं ॐ सरस्वत्यै नमः।


एकादशाक्षर-पारिजात-सरस्वती मंत्र

1.- ॐ ह्रीं ह्सौं ह्रीं ॐ सरस्वत्यै नमः |
2.- ॐ ऐं ह्स्त्रैं ह्रीं ॐ सरस्वत्यै नमः।


द्वादशाक्षर सरस्वती मंत्र -

ह्रीं वद वद वाग्-वादिनि स्वाहा ह्रीं


अन्तरिक्ष-सरस्वती मंत्र-

ऐं ह्रीं अन्तरिक्ष-सरस्वती स्वाहा।


षोडशाक्षर सरस्वती मंत्र

ऐं नमः भगवति वद वद वाग्देवि स्वाहा।
सरस्वती महाभागे विद्ये कमल लोचने।
विद्यारूपे विशालाक्षी विद्या देहि नमोस्तुते !



सरस्वती माता का शाबर मंत्र -


" ॐ नमो सरस्वती विद्या नमो कंठ विराजो
आप भुला अक्षर कंठ करें हृदय विराजो आप
ॐ नमो स्वः ठ:ठ:ठ:  "


Monday 30 January 2017

भगवान शिव के बारे में जानकारी जो शायद आप नही जानते



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भगवान शिव 


भगवान शिव के बारे में जानकारी जो शायद आप नही जानते -

वशीकरण मंत्र  , रक्षा मंत्र , शक्ति मंत्र ,रोग नाशक मंत्र ,शांति के मंत्र , साधुओ के लिए  , ज्ञान वर्धक धार्मिक जानकारी के लिए visit  करे शाबर मंत्र या खोले shabarmantars.blogspot.in


भगवान शिव का नाम दिमाग में आते ही  मस्तिष्क पटल पर एक छवि उभरती है। एक छवि जिसके हाथ में डमरू-त्रिशूल, गले में साँप और समीप नंदी ( एक बैल ) का रूप उभर कर आता है |  । वस्त्र के नाम पर पशु चर्म है। ये छवि  जिसने  सदियों से लोगों को प्रभावित किया हुआ है । जटाओं में एक चंद्र चिह्न होता है। उनके मस्तष्क पर तीसरी आंख है। वे गले में सर्प और रुद्राक्ष की माला लपेटे रहते हैं। उनके एक हाथ में डमरू तो दूसरे में त्रिशूल है। वे संपूर्ण देह पर भस्म लगाए रहते हैं। उनके शरीर के निचले हिस्से को वे व्याघ्र चर्म से लपेटे रहते हैं। वे वृषभ की सवारी करते हैं |

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भगवान शिव की जटाओ में गंगा 

भगवान शिव की जटाओ में गंगा जी का वास है ,  जानिए  इसका क्या कारण है -

भगीरथ बड़े प्रजावत्सल नरेश थे किन्तु उनकी कोई सन्तान नहीं हुई। इस पर वे अपने राज्य का भार मन्त्रियों को सौंपकर स्वयं गंगावतरण के लिये गोकर्ण नामक तीर्थ पर जाकर कठोर तपस्या करने लगे। उनकी अभूतपूर्व तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा। भगीरथ ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिये कि सगर के पुत्रों को मेरे प्रयत्नों से गंगा का जल प्राप्त हो जिससे कि उनका उद्धार हो सके। इसके अतिरिक्त मुझे सन्तान प्राप्ति का भी वर दीजिये ताकि इक्ष्वाकु वंश नष्ट न हो। ब्रह्मा जी ने कहा कि सन्तान का तेरा मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण होगा, किन्तु तुम्हारे माँगे गये प्रथम वरदान को देने में कठिनाई यह है कि जब गंगा जी वेग के साथ पृथ्वी पर अवतरित होंगीं तो उनके वेग को पृथ्वी संभाल नहीं सकेगी। गंगा जी के वेग को संभालने की क्षमता महादेव जी के अतिरिक्त किसी में भी नहीं है। इसके लिये तुम्हें महादेव जी को प्रसन्न करना होगा। इतना कह कर ब्रह्मा जी अपने लोक को चले गये। "भगीरथ ने साहस नहीं छोड़ा। वे एक वर्ष तक पैर के अँगूठे के सहारे खड़े होकर महादेव जी की तपस्या करते रहे। केवल वायु के अतिरिक्त उन्होंने किसी अन्य वस्तु का भक्षण नहीं किया। अन्त में इस महान भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव जी ने भगीरथ को दर्शन देकर कहा कि हे भक्तश्रेष्ठ! हम तेरी मनोकामना पूरी करने के लिये गंगा जी को अपने मस्तक पर धारण करेंगे। इसकी सूचना पाकर विवश होकर गंगा जी को सुरलोक का परित्याग करना पड़ा। उस समय वे सुरलोक से कहीं जाना नहीं चाहती थीं, इसलिये वे यह विचार करके कि मैं अपने प्रचण्ड वेग से शिव जी को बहा कर पाताल लोक ले जाऊँगी वे भयानक वेग से शिव जी के सिर पर अवतरित हुईं। गंगा का यह अहंकार महादेव जी से छुपा न रहा। महादेव जी ने गंगा की वेगवती धाराओं को अपने जटाजूट में उलझा लिया। गंगा जी अपने समस्त प्रयत्नों के बाद भी महादेव जी के जटाओं से बाहर न निकल सकीं। गंगा जी को इस प्रकार शिव जी की जटाओं में विलीन होते देख भगीरथ ने फिर शंकर जी की तपस्या की। भगीरथ के इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने गंगा जी को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ा।



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भगवान शंकर के माथे पर चंद्र का स्थान क्यों है -

भगवान शंकर के माथे पर चंद्र का स्थान क्यों है -

पौराणिक कथानुसार चंद्र का विवाह दक्ष प्रजापति की 27 नक्षत्र कन्याओं के साथ संपन्न हुआ। चंद्र एवं रोहिणी बहुत खूबसूरत थीं एवं चंद्र का रोहिणी पर अधिक स्नेह देख शेष कन्याओं ने अपने पिता दक्ष से अपनादु:ख प्रकट किया। दक्ष स्वभाव से ही क्रोधी प्रवृत्ति के थे और उन्होंने क्रोध में आकर चंद्र को श्राप दिया कि तुम क्षय रोग से ग्रस्त हो जाओगे। शनै:-शनै: चंद्र क्षय रोग से ग्रसित होने लगे और उनकी कलाएं क्षीण होना प्रारंभ प्रारंभ हो गईं। नारदजी ने उन्हें मृत्युंजय भगवान आशुतोष की आराधना करने को कहा, तत्पश्चात उन्होंंने भगवान आशुतोष की आराधना की। चंद्र अंतिम सांसें गिन रहे थे (चंद्र की अंतिम एकधारी) कि भगवान शंकर ने प्रदोषकाल में चंद्र को पुनर्जीवन का वरदान देकर उसे अपने मस्तक पर धारण कर लिया |



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भगवान शिव का सेवक वासुकी -


भगवान शिव का सेवक वासुकी -

शंकर जी के गले के आभूषण सांप है | उस नाग का नाम वासुकि है | कथा के अनुसार वासुकि की तपस्या से खुश होकर शिव जी ने वासुकि को अपने गले में आभूषण के तौर पर स्वीकार किया था |शिव को नागवंशियों से घनिष्ठ लगाव था। नाग कुल के सभी लोग शिव के क्षेत्र हिमालय में ही रहते थे। कश्मीर का अनंतनाग इन नागवंशियों का गढ़ था। नागकुल के सभी लोग शैव धर्म का पालन करते थे। नागों के प्रारंभ में 5 कुल थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- शेषनाग (अनंत), वासुकी, तक्षक, पिंगला और कर्कोटक।

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भभूत या भस्म 

भभूत या भस्म -

- शिव अपने शरीर पर भस्म धारण करते हैं। भस्म जगत की निस्सारता का बोध कराती है। भस्म आकर्षण, मोह आदि से मुक्ति का प्रतीक भी है। देश में एकमात्र जगह उज्जैन के महाकाल मंदिर में शिव की भस्म आरती होती है जिसमें श्मशान की भस्म का इस्तेमाल किया जाता है।

त्रिपुंड तिलक

त्रिपुंड तिलक -

माथे पर भगवान शिव त्रिपुंड तिलक लगाते हैं। यह तीन लंबी धारियों वाला तिलक होता है। यह त्रिलोक्य और त्रिगुण का प्रतीक है। यह सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण का प्रतीक भी है। यह त्रिपुंड सफेद चंदन का या भस्म का होता है।

कान में कुंडल -

 कर्ण छेदन एक संस्कार है। शैव, शाक्त और नाथ संप्रदाय में दीक्षा के समय कान छिदवाकर उसमें मुद्रा या कुंडल धारण करने की प्रथा है। कर्ण छिदवाने से कई प्रकार के रोगों से तो बचा जा ही सकता है साथ ही इससे मन भी एकाग्र रहता है।

https://shabarmantars.blogspot.in/search?q=RUDRAKSHरुद्राक्ष -

 माना जाता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति शिव के आंसुओं से हुई थी। धार्मिक ग्रंथानुसार 21 मुख तक के रुद्राक्ष होने के प्रमाण हैं, परंतु वर्तमान में 14 मुखी के पश्चात सभी रुद्राक्ष अप्राप्य हैं। इसे धारण करने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है तथा रक्त प्रवाह भी संतुलित रहता है।


http://shabarmantars.blogspot.com/2017/01/blog-post_30.htmlशिव गण -

 भगवान शिव की सुरक्षा और उनके आदेश को मानने के लिए उनके गण सदैव तत्पर रहते हैं। प्रमुख गण थे- भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय। उनके गणों में भैरव को सबसे प्रमुख माना जाता है। उसके बाद नंदी का नंबर आता और फिर वीरभ्रद्र। जहां भी शिव मंदिर स्थापित होता है, वहां रक्षक (कोतवाल) के रूप में भैरवजी की प्रतिमा भी स्थापित की जाती है। भैरव दो हैं- काल भैरव और बटुक भैरव। दूसरी ओर वीरभद्र शिव का एक बहादुर गण था जिसने शिव के आदेश पर दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया। शिव ने अपनी जटा से 'वीरभद्र' नामक गण उत्पन्न किया। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। ये सभी गण धरती और ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं |



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शिव का धनुष -


 शिव ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था। इसी के एक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त कर दिया गया था। इस धनुष का नाम पिनाक था। देवी और देवताओं के काल की समाप्ति के बाद इस धनुष को देवरात को सौंप दिया गया था।

http://shabarmantars.blogspot.com/2017/01/blog-post_30.htmlशिव का चक्र -

 शंकरजी के चक्र का नाम भवरेंदु था। इस तरह भगवान शिव के पास कई अस्त्र-शस्त्र थे लेकिन उन्होंने अपने सभी अस्त्र-शस्त्र देवताओं को सौंप दिए। यह बहुत ही अचूक और घातक अस्त्र था।





http://shabarmantars.blogspot.com/2017/01/blog-post_30.htmlशिव का त्रिशूल-

 शिव का त्रिशूल 3 प्रकार के कष्टों दैनिक, दैविक, भौतिक के विनाश का सूचक है। इसमें 3 तरह की शक्तियां हैं- सत, रज और तम। प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन। इसके अलावा पाशुपतास्त्र भी शिव का अस्त्र है।




शिव के द्वारपाल -

 कैलाश पर्वत के क्षेत्र में उस काल में कोई भी देवी या देवता, दैत्य या दानव शिव के द्वारपाल की आज्ञा के बगैर अंदर नहीं जा सकता था। ये द्वारपाल संपूर्ण दिशाओं में तैनात थे। इन द्वारपालों के नाम हैं- नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल। 


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शिव पंचायत -

 देवताओं और दैत्यों के झगड़े आदि के बीच जब कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेना होता था तो शिव की पंचायत का फैसला अंतिम होता था। शिव की पंचायत में 5 देवता शामिल थे।

ये 5 देवता थे:- 1. सूर्य, 2. गणपति, 3. देवी, 4. रुद्र और 5. विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।


शिव पार्षद -

 जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं ‍उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि ‍शिव के पार्षद हैं।  नंदी और भृंगी गण भी है, द्वारपाल भी है और पार्षद भी।

http://shabarmantars.blogspot.com/2017/01/blog-post_30.htmlभगवान शिव के शिष्य - 

शिव तो जगत के गुरु हैं। मान्यता अनुसार सबसे पहले उन्होंने अपना ज्ञान सप्त ऋषियों को दिया था। सप्त ऋषियों ने शिव से ज्ञान लेकर अलग-अलग दिशाओं में फैलाया और दुनिया के कोने-कोने में शैव धर्म, योग और ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया।

Friday 20 January 2017

तेतीस कोटि के देवता ,33 types of god

तेतीस कोटि के देवता 



हिन्दू धर्म में तेतीस कोटि के देवताओ का वर्णन पाया जाता है | कोटि के सन्दर्भ में इसका अर्थ करोड़ से लिया जाता है , जबकि यहाँ इसका मतलब प्रकार से है अर्थात तेतीस प्रकार के देवता |अब उन तेतीस देवताओ में किन किन वर्णन पाया जाता है आइये देखते है -

11 रुद्र+12  आदित्य +8  वसु+2 अश्विनी कुमार

शिव के 11 रुद्र अवतार

11  रुद्र  इस प्रकार हैं-
1- कपाली       2- पिंगल             3- भीम            4-विरुपाक्ष      5- विलोहित
6- शास्ता        7- अजपाद          8- अहिर्बुधन्य    9- शंभु           10- चण्ड              11- भव 


 शिव पुराण के अनुसार11 रुद्र अवतार हैं। इनकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है-
एक बार देवताओं और दानवों में लड़ाई छिड़ गई। इसमें दानव जीत गए और उन्होंने देवताओं को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया। सभी देवता बड़े दु:खी मन से अपने पिता कश्यप मुनि के पास गए। उन्होंने पिता को अपने दु:ख का कारण बताया। कश्यप मुनि परम शिवभक्त थे। उन्होंने अपने पुत्रों को आश्वासन दिया और काशी जाकर भगवान शिव की पूजा-अर्चना शुरु कर दी। उनकी सच्ची भक्ति देखकर भगवान भोलेनाथ प्रसन्न हुए और दर्शन देकर वर मांगने को कहा।
कश्यप मुनि ने देवताओं की भलाई के लिए उनके यहां पुत्र रूप में आने का वरदान मांगा। शिव भगवान ने कश्यप को वर दिया और वे उनकी पत्नी सुरभि के गर्भ से ग्यारह रुपों में प्रकट हुए। यही ग्यारह रुद्र कहलाए। ये देवताओं के दु:ख को दूर करने के लिए प्रकट हुए थे इसीलिए इन्होंने देवताओं को पुन: स्वर्ग का राज दिलाया। धर्म शास्त्रों के अनुसार यह ग्यारह रुद्र सदैव देवताओं की रक्षा के लिए स्वर्ग में ही रहते हैं।



12  आदित्य -
 ऋषि कश्यप की पत्नी अदिति से जन्मे पुत्रों को आदित्य कहा गया है। वेदों में जहां अदिति के पुत्रों को आदित्य कहा गया है, वहीं सूर्य को भी आदित्य कहा गया है। इन्हीं  पर वर्ष के 12 मास नियु‍क्त हैं। 

12 आदित्य  के अलग अलग नाम :
1- अंशुमान       2- अर्यमन       3- इन्द्र             4- त्वष्टा
5- धातु             6- पर्जन्य       7- पूषा              8- भग
9-  मित्र            10-वरुण          11- विवस्वान   12- विष्णु।


कई जगह इनके नाम हैं :
 1- अंश      2- अर्यमा     3- शुक्र             4-     त्वष्टा
5- धाता           6- पर्जन्य       7- पूषा              8-       भग
9-  मित्र            10-   वरुण          11-       विवस्वान   12-     विष्णु।


8  वसु -

1- द्यौ           2- ध्रुव          3- सोम           4- अयज
5- अनल        6- अनिल       7- प्रत्यूष        8- प्रभास

आठों का जन्म दक्षकन्या और धर्म की पत्नी वसु में हुआ था।
शिवपुराण  में इनके नाम द्यौ , ध्रुव, सोम, अयज , अनल, अनिल, प्रत्यूष तथा प्रभास हैं।
 स्कंद, विष्णु तथा हरिवंश पुराणों में इनके नाम घर, ध्रुव, सोम, अप्, अनल, अनिल, प्रत्यूष तथा प्रभास हैं। भागवत में इनके नाम क्रमश: द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु और विभावसु हैं।


वसुओं के बारे में प्रचलित है के उनमे से एक ने वशिष्ठ मुनि की गाय चुरा ली | जब मुनि  को इसी खबर लगी तो उन्होंने सभी वसुओं को मनुष्य जन्म भोगने का शाप दे दिया | वास्तविकता का पता चलने तथा कुमारो के क्षमा मांगने पर पर उनमे से सात की मनुष्य जन्म में आयु एक एक साल तक भोगने का शाप दिया | बाकि बचे एक को सम्पूर्ण मानव जीवन भोगने का शाप दिया | उस वसु का मानव जीवन में महाभारत में राजा शांतनु की पत्नी गंगा के गर्भ से हुआ | आठो का जनम गंगा के गर्भ से हुआ था ,लेकिन वचन में बंधे होने के कारण शांतनु गंगा को पुत्रो को नदी में प्रवाहित करने से  रोक नही सके | सात पुत्रो के गंगा में प्रवाहित करने के बाद गंगा जी को शांतनु ने आठवे पुत्र के समय रोक दिया | और अपना वचन तोड़ दिया | वह पुत्र देवव्रत या भीष्म के नाम से प्रसिद्ध है |


2 अश्विनी कुमार -

 नासत्य,  द्स्त्र  

 अश्विनी देव से उत्पन्न होने के कारण इनका नाम अश्‍विनी कुमार रखा गया  | ये मूल रूप से चिकित्सक थे।   5 पांडवों में नकुल और सहदेव इन दोनों के पुत्र हैं।  कुंती ने माद्री को जो गुप्त मंत्र दिया था उससे माद्री ने इन दो अश्‍विनी कुमारों का ही आह्वान किया था।  दोनों कुमारों ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के पतिव्रत से प्रसन्न होकर महर्षि च्यवन का इन्होंने वृद्धावस्था में ही कायाकल्प कर उन्हें चिर-यौवन प्रदान किया था।  च्यवन ने इन्द्र से इनके लिए संस्तुति कर इन्हें यज्ञ भाग दिलाया था।  



Tuesday 17 January 2017

माता नवदुर्गा इतिहास, ध्यान ,कवच ,स्तुति मंत्र (नवरात्र )

 दुर्गा के नव रूप की विशेषताए एवं मन्त्र

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नवरात्र का अर्थ शिव और शक्ति के उस नौ दुर्गाओं के स्वरूप से भी है , जिन्होंने आदिकाल से ही इस संसार को जीवन प्रदायिनी ऊर्जा प्रदान की है और प्रकृति तथा सृष्टि के निर्माण में मातृशक्ति और स्त्री शक्ति की प्रधानता को सिद्ध किया है। दुर्गा माता स्वयं सिंह वाहिनी होकर अपने शरीर में नव दुर्गाओं के अलग-अलग स्वरूप को समाहित किए हुए है। शारदीय नवरात्र में इन सभी नव दुर्गाओं को प्रतिपदा से लेकर नवमी तक पूजा जाता है। इन नव दुर्गाओं के स्वरूप की चर्चा महर्षि मार्कण्डेय को ब्रह्मा जी द्वारा इस क्रम के अनुसार संबोधित किया है।

माता नवदुर्गा इतिहास, ध्यान ,कवच ,स्तुति मंत्र (नवरात्र )   https://shabarmantars.blogspot.in/2017/01/blog-post_76.htmlप्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयम् ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चंद्रघण्टेति कुष्मांडेति चतुर्थकं॥
पंचमं स्कंदमातेति, षष्टम कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति, महागौरीति चाष्टमं॥
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिताः॥



1. शैलपुत्री – 

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                 शैलपुत्री               

पहले दिन माँ दुर्गा के पहले स्वरूप शैलपुत्री की पूजा होती है। पर्वतराजहिमालय के यहाँ पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा था। भगवती का वाहन वृषभ, दाहिने हाथ में त्रिशूल, और बायें हाथ में कमल सुशोभित है। अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। तब इनका नाम सती था। इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था। एक बार वह अपने पिता के यज्ञ में गईं तो वहाँ अपने पति भगवान शंकर के अपमान को सह न सकीं। उन्होंने वहीं अपने शरीर को योगाग्नि में भस्म कर दिया। अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और शैलपुत्री नाम से विख्यात हुईं। इस जन्म में भी शैलपुत्री देवी शिवजी की ही अर्द्धांगिनी बनीं। नव दुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री का महत्व और शक्तियाँ अनन्त हैं। नवरात्र पूजन में प्रथम दिन इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इस दिन उपासना में योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योगसाधना का आरम्भ होता है। इस स्वरूप का आज के दिन पूजन किया जाता है। आवाहन, स्थापन और विसर्जन ये तीनों आज प्रात:काल ही होंगे। किसी एकान्त स्थान पर मृत्तिका से वेदी बनाकर उसमें जौ गेंहू बोये जाते हैं। उस पर कलश स्थापित किया जाता है। कलश पर मूर्ति की स्थापना होती है। मूर्ति किसी भी धातु या मिट्टी की हो सकती है। कलश के पीछे स्वास्तिक और उसके युग्म पार्श्व में त्रिशूल बनायें। शैलपुत्री के पूजन करने से ‘मूलाधार चक्र’ जाग्रत होता है। जिससे अनेक प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं।

 ध्यान

वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्।
वृशारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥
पूणेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥
 पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥
प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।
 कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥
स्तोत्र पाठ प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर: तारणीम्।
 धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥
 त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरी त्वंहि महामोह: विनाशिन।
 मुक्ति भुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥

 कवच

ओमकार: में शिर: पातु मूलाधार निवासिनी।
हींकार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥
 श्रींकार पातु वदने लावाण्या महेश्वरी ।
 हुंकार पातु हदयं तारिणी शक्ति स्वघृत।
 फट्कार पात सर्वागे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥



माता नवदुर्गा इतिहास, ध्यान ,कवच ,स्तुति मंत्र (नवरात्र )   https://shabarmantars.blogspot.in/2017/01/blog-post_76.html2. ब्रह्मचारिणी - माँ दुर्गा की नवशक्तियों का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। यहाँ ब्रह्म शब्द का अर्थ तपस्या है। ब्रह्मचारिणी अर्थात तप की चारिणी–तप का आचरण करने वाली। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल है। अपने पूर्व जन्म में जब ये हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थीं, तब नारद के उपदेश से इन्होंने भगवान शंकरजी को प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या की थी। इसी दुष्कर तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। इन्होंने एक हज़ार वर्ष तक केवल फल खाकर व्यतीत किए औए सौ वर्ष तक केवल शाक पर निर्भर रहीं। उपवास के समय खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के विकट कष्ट सहे, इसके बाद में केवल ज़मीन पर टूट कर गिरे बेलपत्रों को खाकर तीन हज़ार वर्ष तक भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। कई हज़ार वर्षों तक वह निर्जल और निराहार रह कर व्रत करती रहीं। पत्तों को भी छोड़ देने के कारण उनका नाम ‘अपर्णा’ भी पड़ा। इस कठिन तपस्या के कारण ब्रह्मचारिणी देवी का पूर्वजन्म का शरीर एकदम क्षीण हो गया था। उनकी यह दशा देखकर उनकी माता मैना देवी अत्यन्त दुखी हो गयीं। उन्होंने उस कठिन तपस्या विरत करने के लिए उन्हें आवाज दी उमा, अरे नहीं। तब से देवी ब्रह्मचारिणी का पूर्वजन्म का एक नाम ‘उमा’ पड़ गया था। उनकी इस तपस्या से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया था। देवता, ॠषि, सिद्धगण, मुनि सभी ब्रह्मचारिणी देवी की इस तपस्या को अभूतपूर्व पुण्यकृत्य बताते हुए उनकी सराहना करने लगे। अन्त में पितामह ब्रह्मा जी ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें सम्बोधित करते हुए प्रसन्न स्वरों में कहा- ‘हे देवी । आज तक किसी ने इस प्रकार की ऐसी कठोर तपस्या नहीं की थी। तुम्हारी मनोकामना सर्वतोभावेन पूर्ण होगी। भगवान चन्द्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तुम तपस्या से विरत होकर घर लौट जाओ।’ माँ दुर्गा का यह दूसरा स्वरूप भक्तों को अनन्त फल देने वाला है । इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार व संयम की वृद्धि होती है। सर्वत्र सिद्धि और विजय प्राप्त होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में होता है। इस चक्र में अवस्थित मन वाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है। जीवन के कठिन संघर्षों में भी उसका मन कर्त्तव्य-पथ से विचलित नहीं होता। माँ ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय प्राप्त होती है।

 ध्यान

वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्घकृत शेखराम्। जपमाला कमण्डलु धरा ब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
 गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता द्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम। धवल परिधाना ब्रह्मरूपा पुष्पालंकार भूषिताम्॥
 परम वंदना पल्लवराधरां कांत कपोला पीन। पयोधराम् कमनीया लावणयं स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम्॥


स्तोत्र पाठ

 तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्। ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥ शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी। शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥

 कवच

त्रिपुरा में ह्रदयं पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी। अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पंचदशी कण्ठे पातु मध्यदेशे पातु महेश्वरी॥ षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
 अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।

3. चंद्रघंटा - 

माँ दुर्गा की तृतीय शक्ति का नाम चंद्रघंटा है। नवरात्रि विग्रह के तीसरे दिन इन का पूजन किया जाता है। माँ का यह स्वरूप शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके माथे पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी लिए इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। इनका शरीर स्वर्ण के समान उज्जवल है, इनके दस हाथ हैं। दसों हाथों में खड्ग, बाण आदि शस्त्र सुशोभित रहते हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उद्यत रहने वाली है। इनके घंटे की भयानक चडंध्वनि से दानव, अत्याचारी, दैत्य, राक्षस डरते रहते हैं। नवरात्र की तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है। इस दिन साधक का मन मणिपुर चक्र में प्रविष्ट होता है। मां चंद्रघंटा की कृपा से साधक को अलौकिक दर्शन होते हैं, दिव्य सुगन्ध और विविध दिव्य ध्वनियाँ सुनायी देती हैं। ये क्षण साधक के लिए अत्यंत सावधान रहने के होते हैं । माँ चन्द्रघंटा की कृपा से साधक के समस्त पाप और बाधाएँ विनष्ट हो जाती हैं । इनकी अराधना सद्य: फलदायी है। इनकी मुद्रा सदैव युद्ध के लिए अभिमुख रहने की होती हैं, अत: भक्तों के कष्ट का निवारण ये शीघ्र कर देती हैं । इनका वाहन सिंह है, अत: इनका उपासक सिंह की तरह पराक्रमी और निर्भय हो जाता है। इनके घंटे की ध्वनि सदा अपने भक्तों की प्रेत-बाधादि से रक्षा करती है । दुष्टों का दमन और विनाश करने में सदैव तत्पर रहने के बाद भी इनका स्वरूप दर्शक और अराधक के लिए अत्यंत सौम्यता एवं शान्ति से परिपूर्ण रहता है । इनकी अराधना से प्राप्त होने वाला सदगुण एक यह भी है कि साधक में वीरता-निर्भरता के साथ ही सौम्यता एवं विनम्रता का विकास होता है। उसके मुख, नेत्र तथा सम्पूर्ण काया में कान्ति-गुण की वृद्धि होती है। स्वर में दिव्य, अलौकिक, माधुर्य का समावेश हो जाता है। माँ चन्द्रघंटा के साधक और उपासक जहाँ भी जाते हैं लोग उन्हें देखकर शान्ति और सुख का अनुभव करते हैं। ऐसे साधक के शरीर से दिव्य प्रकाशयुक्त परमाणुओं का दिव्य अदृश्य विकिरण होता है। यह दिव्य क्रिया साधारण चक्षुओं से दिखलायी नहीं देती, किन्तु साधक और सम्पर्क में आने वाले लोग इस बात का अनुभव भलीभांति कर लेते हैं साधक को चाहिए कि अपने मन, वचन, कर्म एवं काया को विहित विधि-विधान के अनुसार पूर्णत: परिशुद्ध एवं पवित्र करके उनकी उपासना-अराधना में तत्पर रहे । उनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से विमुक्त होकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं । हमें निरन्तर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखते हुए साधना की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए परम कल्याणकारी और सदगति देने वाला है। माँ चंद्रघंटा की कृपा से साधक की समस्त बाधायें हट जाती हैं।

 ध्यान

वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखरम्। सिंहारूढा चंद्रघंटा यशस्वनीम्॥
मणिपुर स्थितां तृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्। खंग, गदा, त्रिशूल,चापशर,पदम कमण्डलु माला वराभीतकराम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्। मंजीर हार केयूर,किंकिणि, रत्नकुण्डल मण्डिताम॥
प्रफुल्ल वंदना बिबाधारा कांत कपोलां तुगं कुचाम्। कमनीयां लावाण्यां क्षीणकटि नितम्बनीम्॥
स्तोत्र पाठ आपदुध्दारिणी त्वंहि आद्या शक्तिः शुभपराम्। अणिमादि सिध्दिदात्री चंद्रघटा प्रणमाभ्यम्॥
चन्द्रमुखी इष्ट दात्री इष्टं मन्त्र स्वरूपणीम्। धनदात्री, आनन्ददात्री चन्द्रघंटे प्रणमाभ्यहम्॥
नानारूपधारिणी इच्छानयी ऐश्वर्यदायनीम्। सौभाग्यारोग्यदायिनी चंद्रघंटप्रणमाभ्यहम्॥ 

कवच

रहस्यं श्रुणु वक्ष्यामि शैवेशी कमलानने। श्री चन्द्रघन्टास्य कवचं सर्वसिध्दिदायकम्॥
बिना न्यासं बिना विनियोगं बिना शापोध्दा बिना होमं। स्नानं शौचादि नास्ति श्रध्दामात्रेण सिध्दिदाम॥ कुशिष्याम कुटिलाय वंचकाय निन्दकाय च न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं कदाचितम्॥

4. कुष्मांडा –

 माँ दुर्गा के चौथे स्वरूप का नाम कूष्माण्डा है। अपनी मन्द हंसी से अण्ड अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारंण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से जाना जाता है। जब सृष्टि नहीं थी और चारों ओर अंधकार ही अंधकार था तब इन्होनें ईषत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। यह सृष्टि की आदिस्वरूपा हैं और आदिशक्ति भी। इनका निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है। सूर्यलोक में निवास करने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। नवरात्रि के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की पूजा की जाती है। साधक इस दिन अनाहत चक्र में अवस्थित होता है। अतः इस दिन पवित्र मन से माँ के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजन करना चाहिए। माँ कूष्माण्डा देवी की पूजा से भक्त के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं। माँ की भक्ति से आयु, यश, बल और स्वास्थ्य की वृध्दि होती है। इनकी आठ भुजायें हैं इसीलिए इन्हें अष्टभुजा कहा जाता है। इनके सात हाथों में कमण्डल, धनुष, बाण, कमल पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथ में सभी सिध्दियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। कूष्माण्डा देवी अल्पसेवा और अल्पभक्ति से ही प्रसन्न हो जाती हैं। यदि साधक सच्चे मन से इनका शरणागत बन जाये तो उसे अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो जाती है। 

ध्यान

वन्दे वांछित कामर्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्। सिंहरूढ़ा अष्टभुजा कूष्माण्डा यशस्वनीम्॥
भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।
कमण्डलु, चाप, बाण, पदमसुधाकलश, चक्र, गदा, जपवटीधराम्॥
पटाम्बर परिधानां कमनीयां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
 मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल, मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदनांचारू चिबुकां कांत कपोलां तुंग कुचाम्।
 कोमलांगी स्मेरमुखी श्रीकंटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥
स्तोत्र पाठ दुर्गतिनाशिनी त्वंहि दरिद्रादि विनाशनीम्।
जयंदा धनदा कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥ जगतमाता जगतकत्री जगदाधार रूपणीम्।
 चराचरेश्वरी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥ त्रैलोक्यसुन्दरी त्वंहिदुःख शोक निवारिणीम्।
 परमानन्दमयी, कूष्माण्डे प्रणमाभ्यहम्॥

 कवच

हंसरै में शिर पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्। हसलकरीं नेत्रेच, हसरौश्च ललाटकम्॥
कौमारी पातु सर्वगात्रे, वाराही उत्तरे तथा,पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।
 दिगिव्दिक्षु सर्वत्रेव कूं बीजं सर्वदावतु॥

           स्कन्दमाता  


5. स्कंदमाता – 

माँ दुर्गा के पांचवे स्वरूप को स्कन्दमाता के रूप में जाना जाता है। इन्हें स्कन्द कुमार कार्तिकेय नाम से भी जाना जाता है। यह प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। पुराणों में इन्हें कुमार शौर शक्तिधर बताकर इनका वर्णन किया गया है। इनका वाहन मयूर है अतः इन्हे मयूरवाहन के नाम से भी जाना जाता है। इन्हीं भगवान स्कन्द की माता होने के कारण दुर्गा के इस पांचवे स्वरूप को स्कन्दमाता कहा जाता है। इनकी पूजा नवरात्रि में पांचवे दिन की जाती है। इस दिन साधक का मन विशुध्द चक्र में होता है। इनके विग्रह में स्कन्द जी बालरूप में माता की गोद में बैठे हैं। स्कन्द मातृस्वरूपिणी देवी की चार भुजायें हैं, ये दाहिनी ऊपरी भुजा में भगवान स्कन्द को गोद में पकडे हैं और दाहिनी निचली भुजा जो ऊपर को उठी है, उसमें कमल पकडा हुआ है। माँ का वर्ण पूर्णतः शुभ्र है और कमल के पुष्प पर विराजित रहती हैं। इसी से इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। इनका वाहन भी सिंह है। 

ध्यान

वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्धकृतशेखराम्। सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा स्कन्दमाता यशस्वनीम्।।
धवलवर्णा विशुध्द चक्रस्थितों पंचम दुर्गा त्रिनेत्रम्। अभय पद्म युग्म करां दक्षिण उरू पुत्रधराम् भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानांलकार भूषिताम्। मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल धारिणीम्॥
प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वांधरा कांत कपोला पीन पयोधराम्। कमनीया लावण्या चारू त्रिवली नितम्बनीम्॥
स्तोत्र पाठ नमामि स्कन्दमाता स्कन्दधारिणीम्। समग्रतत्वसागररमपारपार गहराम्॥
 शिवाप्रभा समुज्वलां स्फुच्छशागशेखराम्। ललाटरत्नभास्करां जगत्प्रीन्तिभास्कराम्॥
महेन्द्रकश्यपार्चिता सनंतकुमाररसस्तुताम्। सुरासुरेन्द्रवन्दिता यथार्थनिर्मलादभुताम्॥'
 अतर्क्यरोचिरूविजां विकार दोषवर्जिताम्। मुमुक्षुभिर्विचिन्तता विशेषतत्वमुचिताम्॥
नानालंकार भूषितां मृगेन्द्रवाहनाग्रजाम्। सुशुध्दतत्वतोषणां त्रिवेन्दमारभुषताम्॥
सुधार्मिकौपकारिणी सुरेन्द्रकौरिघातिनीम्। शुभां पुष्पमालिनी सुकर्णकल्पशाखिनीम्॥
 तमोन्धकारयामिनी शिवस्वभाव कामिनीम्। सहस्त्र्सूर्यराजिका धनज्ज्योगकारिकाम्॥
सुशुध्द काल कन्दला सुभडवृन्दमजुल्लाम्। प्रजायिनी प्रजावति नमामि मातरं सतीम्॥
 स्वकर्मकारिणी गति हरिप्रयाच पार्वतीम्। अनन्तशक्ति कान्तिदां यशोअर्थभुक्तिमुक्तिदाम्॥ पुनःपुनर्जगद्वितां नमाम्यहं सुरार्चिताम्। जयेश्वरि त्रिलोचने प्रसीद देवीपाहिमाम्॥

 कवच

ऐं बीजालिंका देवी पदयुग्मघरापरा। ह्रदयं पातु सा देवी कार्तिकेययुता॥
श्री हीं हुं देवी पर्वस्या पातु सर्वदा। सर्वांग में सदा पातु स्कन्धमाता पुत्रप्रदा॥
वाणंवपणमृते हुं फ्ट बीज समन्विता। उत्तरस्या तथाग्नेव वारूणे नैॠतेअवतु॥
 इन्द्राणां भैरवी चैवासितांगी च संहारिणी। सर्वदा पातु मां देवी चान्यान्यासु हि दिक्षु वै॥


              कात्यायनी

6. कात्यायनी - 

माँ दुर्गा के छठे रूप का नाम कात्यायनी है। इनके नाम से जुड़ी कथा है कि एक समय कत नाम के प्रसिद्ध ॠषि थे। उनके पुत्र ॠषि कात्य हुए, उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध कात्य गोत्र से, विश्वप्रसिद्ध ॠषि कात्यायन उत्पन्न हुए। उन्होंने भगवती पराम्बरा की उपासना करते हुए कठिन तपस्या की। उनकी इच्छा थी कि भगवती उनके घर में पुत्री के रूप में जन्म लें। माता ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। कुछ समय के पश्चात जब महिषासुर नामक राक्षस का अत्याचार बहुत बढ़ गया था, तब उसका विनाश करने के लिए ब्रह्मा,विष्णु और महेश ने अपने अपने तेज और प्रताप का अंश देकर देवी को उत्पन्न किया था। महर्षि कात्यायन ने इनकी पूजा की इसी कारण से यह देवी कात्यायनी कहलायीं। अश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेने के बाद शुक्ल सप्तमी, अष्टमी और नवमी, तीन दिनों तक कात्यायन ॠषि ने इनकी पूजा की, पूजा ग्रहण कर दशमी को इस देवी ने महिषासुर का वध किया। इन का स्वरूप अत्यन्त ही दिव्य है। इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला है। इनकी चार भुजायें हैं, इनका दाहिना ऊपर का हाथ अभय मुद्रा में है, नीचे का हाथ वरदमुद्रा में है। बांये ऊपर वाले हाथ में तलवार और निचले हाथ में कमल का फूल है और इनका वाहन सिंह है।

 ध्यान

वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्। सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा कात्यायनी यशस्वनीम्॥
स्वर्णाआज्ञा चक्र स्थितां षष्टम दुर्गा त्रिनेत्राम्। वराभीत करां षगपदधरां कात्यायनसुतां भजामि॥
 पटाम्बर परिधानां स्मेरमुखी नानालंकार भूषिताम्। मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥ प्रसन्नवदना पञ्वाधरां कांतकपोला तुंग कुचाम्। कमनीयां लावण्यां त्रिवलीविभूषित निम्न नाभिम॥
स्तोत्र पाठ कंचनाभा वराभयं पद्मधरा मुकटोज्जवलां। स्मेरमुखीं शिवपत्नी कात्यायनेसुते नमोअस्तुते॥
पटाम्बर परिधानां नानालंकार भूषितां। सिंहस्थितां पदमहस्तां कात्यायनसुते नमोअस्तुते॥
परमांवदमयी देवि परब्रह्म परमात्मा। परमशक्ति, परमभक्ति,कात्यायनसुते नमोअस्तुते॥

 कवच

कात्यायनी मुखं पातु कां स्वाहास्वरूपिणी। ]
ललाटे विजया पातु मालिनी नित्य सुन्दरी॥
कल्याणी ह्रदयं पातु जया भगमालिनी॥

             कालरात्रि

7. कालरात्रि –

 दुर्गा की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है। इनके शरीर का रंग घने अंधकार की भाँति काला है, बाल बिखरे हुए, गले में विद्युत की भाँति चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं जो ब्रह्माण्ड की तरह गोल हैं, जिनमें से बिजली की तरह चमकीली किरणें निकलती रहती हैं। इनकी नासिका से श्वास, निःश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालायें निकलती रहती हैं। इनका वाहन ‘गर्दभ’ (गधा) है। दाहिने ऊपर का हाथ वरद मुद्रा में सबको वरदान देती हैं, दाहिना नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बायीं ओर के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा और निचले हाथ में खड्ग है। माँ का यह स्वरूप देखने में अत्यन्त भयानक है किन्तु सदैव शुभ फलदायक है। अतः भक्तों को इनसे भयभीत नहीं होना चाहिए । दुर्गा पूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन सहस्त्रारचक्र में अवस्थित होता है। साधक के लिए सभी सिध्दैयों का द्वार खुलने लगता है। इस चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णत: मां कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है, उनके साक्षात्कार से मिलने वाले पुण्य का वह अधिकारी होता है, उसकी समस्त विघ्न बाधाओं और पापों का नाश हो जाता है और उसे अक्षय पुण्य लोक की प्राप्ति होती है। 

ध्यान

करालवंदना धोरां मुक्तकेशी चतुर्भुजाम्। कालरात्रिं करालिंका दिव्यां विद्युतमाला विभूषिताम॥
दिव्यं लौहवज्र खड्ग वामोघोर्ध्व कराम्बुजाम्। अभयं वरदां चैव दक्षिणोध्वाघः पार्णिकाम् मम॥
महामेघ प्रभां श्यामां तक्षा चैव गर्दभारूढ़ा। घोरदंश कारालास्यां पीनोन्नत पयोधराम्॥
सुख पप्रसन्न वदना स्मेरान्न सरोरूहाम्। एवं सचियन्तयेत् कालरात्रिं सर्वकाम् समृध्दिदाम्॥
स्तोत्र पाठ हीं कालरात्रि श्री कराली च क्लीं कल्याणी कलावती। कालमाता कलिदर्पध्नी कमदीश कुपान्विता॥
कामबीजजपान्दा कमबीजस्वरूपिणी। कुमतिघ्नी कुलीनर्तिनाशिनी कुल कामिनी॥
 क्लीं हीं श्रीं मन्त्र्वर्णेन कालकण्टकघातिनी। कृपामयी कृपाधारा कृपापारा कृपागमा॥ 

कवच

ऊँ क्लीं मे ह्रदयं पातु पादौ श्रीकालरात्रि। ललाटे सततं पातु तुष्टग्रह निवारिणी॥
 रसनां पातु कौमारी, भैरवी चक्षुषोर्भम। कटौ पृष्ठे महेशानी, कर्णोशंकरभामिनी॥
वर्जितानी तु स्थानाभि यानि च कवचेन हि। तानि सर्वाणि मे देवीसततंपातु स्तम्भिनी॥

              महागौरी

8. महागौरी –

 दुर्गा की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है। इस गौरता की उपमा शंख, चन्द्र और कून्द के फूल की गयी है। इनकी आयु आठ वर्ष बतायी गयी है। इनका दाहिना ऊपरी हाथ में अभय मुद्रा में और निचले दाहिने हाथ में त्रिशूल है। बांये ऊपर वाले हाथ में डमरू और बांया नीचे वाला हाथ वर की शान्त मुद्रा में है। पार्वती रूप में इन्होंने भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तपस्या की थी। इन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि व्रियेअहं वरदं शम्भुं नान्यं देवं महेश्वरात्। गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार इन्होंने शिव के वरण के लिए कठोर तपस्या का संकल्प लिया था जिससे इनका शरीर काला पड़ गया था। इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर जब शिव जी ने इनके शरीर को पवित्रगंगाजल से मलकर धोया तब वह विद्युत के समान अत्यन्त कांतिमान गौर हो गया, तभी से इनका नाम गौरी पड़ा।

 ध्यान

वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्। सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा महागौरी यशस्वनीम्॥
 पूर्णन्दु निभां गौरी सोमचक्रस्थितां अष्टमं महागौरी त्रिनेत्राम्।
 वराभीतिकरां त्रिशूल डमरूधरां महागौरी भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
 मंजीर, हार, केयूर किंकिणी रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
 प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वाधरां कातं कपोलां त्रैलोक्य मोहनम्।
 कमनीया लावण्यां मृणांल चंदनगंधलिप्ताम्॥
स्तोत्र पाठ सर्वसंकट हंत्री त्वंहि धन ऐश्वर्य प्रदायनीम्।
ज्ञानदा चतुर्वेदमयी महागौरी प्रणमाभ्यहम्॥
सुख शान्तिदात्री धन धान्य प्रदीयनीम्।
 डमरूवाद्य प्रिया अद्या महागौरी प्रणमाभ्यहम्॥
 त्रैलोक्यमंगल त्वंहि तापत्रय हारिणीम्।
वददं चैतन्यमयी महागौरी प्रणमाम्यहम्॥

 कवच

ओंकारः पातु शीर्षो मां, हीं बीजं मां, ह्रदयो। क्लीं बीजं सदापातु नभो गृहो च पादयो॥
 ललाटं कर्णो हुं बीजं पातु महागौरी मां नेत्रं घ्राणो। कपोत चिबुको फट् पातु स्वाहा मा सर्ववदनो॥ 

        सिध्दीदात्री

9. सिद्धिदात्री – 

दुर्गा की नवम शक्ति का नाम सिध्दी है। ये सिध्दीदात्री हैं। सभी प्रकार की सिध्दियों को देने वाली। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिया, प्राप्ति, प्रकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ सिध्दियां होती हैं। देवी पुराण के अनुसार भगवान शिव ने इन्हीं की कृपा से सिध्दियों को प्राप्त किया था। इन्हीं की अनुकम्पा से भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण वह संसार में अर्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। माता सिध्दीदात्री चार भुजाओं वाली हैं। इनका वाहन सिंह है। ये कमल पुष्प पर आसीन होती हैं। इनकी दाहिनी नीचे वाली भुजा में चक्र,ऊपर वाली भुजा में गदा और  बांयी तरफ नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमलपुष्प है। नवरात्रि पूजन के नवें दिन इनकी पूजा की जाती है। 

ध्यान

वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्। कमलस्थितां चतुर्भुजा सिध्दीदात्री यशस्वनीम्॥
स्वर्णावर्णा निर्वाणचक्रस्थितां नवम् दुर्गा त्रिनेत्राम्। शख, चक्र, गदा, पदम, धरां सिध्दीदात्री भजेम्॥
पटाम्बर, परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्। मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदना पल्लवाधरां कातं कपोला पीनपयोधराम्। कमनीयां लावण्यां श्रीणकटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥
स्तोत्र पाठ कंचनाभा शखचक्रगदापद्मधरा मुकुटोज्वलो। स्मेरमुखी शिवपत्नी सिध्दिदात्री नमोअस्तुते॥ पटाम्बर परिधानां नानालंकारं भूषिता। नलिस्थितां नलनार्क्षी सिध्दीदात्री नमोअस्तुते॥
 परमानंदमयी देवी परब्रह्म परमात्मा। परमशक्ति, परमभक्ति, सिध्दिदात्री नमोअस्तुते॥
विश्वकर्ती, विश्वभती, विश्वहर्ती, विश्वप्रीता। विश्व वार्चिता विश्वातीता सिध्दिदात्री नमोअस्तुते॥
भुक्तिमुक्तिकारिणी भक्तकष्टनिवारिणी। भव सागर तारिणी सिध्दिदात्री नमोअस्तुते॥
धर्मार्थकाम प्रदायिनी महामोह विनाशिनी। मोक्षदायिनी सिध्दीदायिनी सिध्दिदात्री नमोअस्तुते॥ 

कवच

ओंकारपातु शीर्षो मां ऐं बीजं मां ह्रदयो। हीं बीजं सदापातु नभो, गुहो च पादयो॥
 ललाट कर्णो श्रीं बीजपातु क्लीं बीजं मां नेत्र घ्राणो। कपोल चिबुको हसौ पातु जगत्प्रसूत्यै मां सर्व वदनो॥ 

Tuesday 10 January 2017

रुद्राक्ष मंत्र , महिमा ,लाभ Rudraksh

रुद्राक्ष मंत्र , महिमा ,लाभ 

रुद्राक्ष तंत्र- मंत्र ,जप -तप, साधना -आराधना में एक उचित स्थान रखने वाला परमेश्वर कृत वृक्ष फल है |इसकी उत्त्पत्ति भगवन शिव के आंसू से मानी गयी है | नाथ साधु रुद्राक्ष का किसी भी रूप में इसका वरन कर लेते है |रुद्राक्ष से नाथ साधु की प्रभाव शीलता और भी सुनिशिचित हो जाती है |रुद्राक्ष माला को कच्चे दूध ,धुप दीप शहद ,गंगाजल आदि से शुद्ध करके मंत्र जप करके धारण करते है |



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                            रुद्राक्ष मंत्र (शाबर )

सत नमो आदेश | गुरूजी को आदेश | ॐ गुरूजी |
मुखे ब्रह्मा मध्ये विष्णु लिंग नाम महेश्वर सर्वदेव नमस्कारं रुद्राक्षाय नमो नमः |गगनमंडल में धुन्धकारा पाताल निरंजन निराकार |
 निराकार में चरण पादुका , चरण पादुका में पिण्डी,पिण्डी में वासुक ,वासुक में कासुक ,कासुक में कूर्म ,कूर्म में मरी ,मरी में नागफणी ,नागफणी में अलख पुरुष ,अलख पुरुष ने बैल के सिंग पर राई ठहराई |धीरज धर्म की धुनि जमाई ,वहां पर रुद्राक्ष सुमेर पर्वत पर जमाइये | उसमे से फूटे ६ (छह ) डाली , एक गया पूर्व ,एक गया दक्षिण ,एक गया पश्चिम ,एक गया उत्तर , एक गया आकाश ,एक गया पाताल |उसमे लाग्या एक मुखी रुद्राक्ष ,श्री रूद्र पर चढ़ाइए | श्री ओंकार आदिनाथ जी को |
दो मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए सूर्य चन्द्र को | तीन मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए तीन लोको को |
चतुर्मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए चार वेदों को | पञ्च मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए पञ्च पांडवो को |
छह मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए षट दर्शन को | सत मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए सात समुन्द्रो को |
अष्ट मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए अष्ट कुली नागों को | नव मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए नवनाथों को |
दशमुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए दश अवतारों को| ग्यारह मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए ग्यारह रुद्रो को |
बारह मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए बारह पंथो को | तेरह मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए तैंतीस कोटि देवताओ को |
चौदह मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए चौदह भुवनों को | पन्द्रह मुखी मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए पंद्रह तिथियों को |
सोलह मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए सोलह श्रृंगारो को |  सत्रह मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए माता सीता को |
अट्ठारह मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए अट्ठारह भार वनस्पतियो को |उन्नीश मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए अलख पुरुष को |
बीस मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए विष्णु भगवन को | इक्कीस मुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए इक्कीस ब्रह्माण्ड शिव को |
निरमुखी रुद्राक्ष चढ़ाइए निराकार को |इतना रुद्राक्ष मंत्र सम्पूर्ण भया |
श्री नाथ जी के चरण कमल में आदेश | आदेश | आदेश |

इस मंत्र के साथ करन्यास करने का भी विधान है ,परंतु उसकी अधिक जानकारी न होने के कारण उसकी उपलब्धता पर संशय हो सकता है |किसी महापुरुष के पास जानकारी हो तो अवश्य उपलब्ध  कराये |

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एकमुखी रुद्राक्ष-

एक मुखी रुद्राक्ष साक्षात् शिवजी का ही रूप है। जिन लोगों को महालक्ष्मी की कृपा चाहिए और सभी सुख-सुविधाएं चाहिए उन्हें एकमुखी रुद्राक्ष धारण करना चाहिए |ऐसा रुद्राक्ष जिसमें एक ही आँख अथवा बिंदी हो। स्वयं शिव का स्वरूप है जो सभी प्रकार के सुख, मोक्ष और उन्नति प्रदान करता ह|


                     



एकमुखी रुद्राक्ष का मंत्र -ऊँ ह्रीं नम:।

दोमुखी रुद्राक्ष-

दोमुखी रुद्राक्ष को देवदेवेश्वर कहा गया है। सभी प्रकार की मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए इसे धारण करना चाहिए।

           दोमुखी रुद्राक्ष का मंत्र - ऊँ नम:।

तीनमुखी रुद्राक्ष-



शिवपुराण के अनुसार तीन मुखी रुद्राक्ष साक्षात साधाना का फल देने वाला बताया गया है। जिन लोगों को विद्या प्राप्ति की अभिलाषा है

तीनमुखी का मंत्र ऊँ क्लीं नम: |

चारमुखी रुद्राक्ष-



चारमुखी रुद्राक्ष को साक्षात् ब्रह्मा का ही रूप माना गया है। इस रुद्राक्ष को धारण करने वाले भक्त को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है।




   चारमुखी मंत्र है-ऊँ ह्रीं नम:।


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                    रुद्राक्ष


पांचमुखी रुद्राक्ष-

जिन भक्तों को सभी परेशानियों से मुक्ति चाहिए और मनोवांछित फल प्राप्त करने की इच्छा है उन्हें पंच मुखी धारण करना चाहिए। । यह रुद्राक्ष सभी प्रकार के पापों के प्रभाव को भी कम करता है।

      पांचमुखी रुद्राक्ष मंत्र है - ऊँ ह्रीं नम:।


छहमुखी रुद्राक्ष-


यह रुद्राक्ष भगवान कार्तिकेय का रूप माना जाता है। कार्तिकेय भगवान शिव के पुत्र हैं। जो व्यक्ति इस रुद्राक्ष को दाहिनी बांह पर धारण करता है उसे ब्रह्महत्या जैसे पापों से भी मुक्ति मिल जाती है।

   छहमुखी रुद्राक्ष मंत्र "ऊँ ह्रीं हुं नम:"।

सातमुखी रुद्राक्ष-

जो व्यक्ति गरीबी से मुक्ति चाहता है उसे सातमुखी रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। इस रुद्राक्ष को धारण करने से गरीब से गरीब व्यक्ति भी धनवान बन सकता है।

सातमुखी रुद्राक्ष मंत्र " ऊँ हुं नम:"।

आठमुखी रुद्राक्ष-

शिवपुराण के अनुसार अष्टमुखी रुद्राक्ष भैरव महाराज का रूप माना जाता है। जो व्यक्ति इस रुद्राक्ष को धारण करता है वह अकाल मृत्यु से शरीर का त्याग नहीं करता है। ऐसे लोग पूर्ण आयु जीते हैं।

आठमुखी रुद्राक्ष मंत्र "ऊँ हुं नम:"।

नौमुखी रुद्राक्ष-

यह रुद्राक्ष महादेवी के नौ रूपों का प्रतीक है। जो लोग नौ मुखी रुद्राक्षधारण करते हैं वे सभी सुख-सुविधाएं प्राप्त करते हैं और समाज में मान-सम्मान प्राप्त करते हैं।

नौमुखी रुद्राक्ष मंत्र "ऊँ ह्रीं हुं नम:"।

दसमुखी रुद्राक्ष-

जो लोग अपनी सभी इच्छाएं पूरी करना चाहते हैं वे दसमुखी रुद्राक्ष पहन सकते हैं। यह रुद्राक्ष भगवान विष्णु का प्रतीक है।

दसमुखी रुद्राक्षमंत्र " ऊँ ह्रीं नम:"।

ग्यारहमुखी रुद्राक्ष-

शिवपुराण के अनुसार ग्यारहमुखी रुद्राक्ष भगवान शिव के अवतार रुद्रदेव का रूप है। जो व्यक्ति इस रुद्राक्ष को धारण करता है वह सभी क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करता है। शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है।

ग्यारहमुखी रुद्राक्ष मंत्र " ऊँ ह्रीं हुं नम:"।

बारहमुखी रुद्राक्ष- 

जो लोग बाहरमुखी रुद्राक्ष धारण करते हैं उन्हें बारह आदित्यों की विशेष कृपा प्राप्त होती है। बारहमुखी रुद्राक्ष बालों में धारण करना चाहिए।

 बारहमुखी रुद्राक्ष मंत्र है "ऊँ क्रौं क्षौं रौं नम:"।


तेरहमुखी रुद्राक्ष-

यह रुद्राक्ष विश्वेदेवों का स्वरूप माना गया है। जो व्यक्ति इस रुद्राक्ष को धारण करने से व्यक्ति भाग्यशाली बन सकता है। तेरहमुखी रुद्राक्ष से धन लाभ होता है।

 तेरहमुखी रुद्राक्ष मंत्र "ऊँ ह्रीं नम:"।

चौदहमुखी रुद्राक्ष-

इस रुद्राक्ष को साक्षात् शिवजी का ही रूप माना गया है। इसे धारण करने वाले व्यक्ति को सभी प्रकार के पापों से मुक्ति मिल जाती है। इस रुद्राक्ष को मस्तक पर धारण करना चाहिए।

चौदहमुखी रुद्राक्ष मंत्र " ऊँ नम:"।

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गणेश रुद्राक्ष

----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------गणेश रुद्राक्ष-

गणेश रुद्राक्ष की पहचान है उस पर प्राकृतिक रूप से रुद्राक्ष पर एक उभरी हुई सुंडाकृति बनी रहती है। यह अत्यंत दुर्लभ तथा शक्तिशाली रुद्राक्ष है। यह गणेशजी की शक्ति तथा सायुज्यता का द्योतक है। धारण करने वाले को यह बुद्धि, रिद्धी- सिद्धी प्रदान कर व्यापार में आश्चर्यजनक प्रगति कराता है। विद्यार्थियों के चित्त में एकाग्रता बढ़ाकर सफलता प्रदान करने में सक्षम होता है। यहाँ रुद्राक्ष आपकी विघ्न-बाधाओं से रक्षा करता है|

शेषनाग रुद्राक्ष-

 जिस रुद्राक्ष की पूँछ पर उभरी हुई फनाकृति हो और वह प्राकृतिक रूप से बनी रहती है, उसे शेषनाग रुद्राक्ष कहते हैं। यह अत्यंत ही दुर्लभ रुद्राक्ष है। यह धारक की निरंतर प्रगति कराता है। धन-धान्य,
शारीरिक और मानसिक उन्नति में सहायक सिद्ध होता है। सभी मानव जो भोग व मोक्ष,
दोनों की कामना करते हैं उन्हें रुद्राक्ष अवश्य धारण करना चाहिए।


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गौरी शंकर रुद्राक्ष-                             

गौरी शंकर रुद्राक्ष-

 गौरी- शंकर रुद्राक्ष भगवान शिवजी के अर्धनारीश्वर स्वरूप तथा शिव व शक्ति का मिश्रित रूप है। इसे धारण करने से शिवजी व पार्वती जी सदैव प्रसन्न रहते हैं तथा जीवन में किसी प्रकार की कोई
कमी नहीं होती है। गौरी-शंकर रुद्राक्ष को घर में धन की तिजोरी या पूजा स्थल में रखने से सभी प्रकार के सुख व संपन्नता प्राप्त होती है। यदि विवाह में देरी हो जाये या वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी में मतभेद हो तो गौरी-शंकर रुद्राक्ष धारण करें। यह शिव और शक्ति का मिश्रित स्वरूप माना जाता है। उभयात्मक शिव और शक्ति की संयुक्त कृपा प्राप्त होती है। यह आर्थिक दृष्टि से विशेष सफलता दिलाता है। पारिवारिक सामंजस्य, आकर्षण, मंगलकामनाओं की सिद्धी में सहायक है।